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तुम जिसके हित नित रहे विकल जिसकी दिन-रात प्रतीक्षा थी / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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तुम जिसके हित नित रहे विकल जिसकी दिन-रात प्रतीक्षा थी।
जिसकी बाहों में मचल-मचल कर बॅंध जाने की इच्छा थी।
जाने वह कौन कसक थी प्रिय! तुम रहे घूमते गली-गली।
अनुक्षण अतृप्त अलि बने विचरते थी मैं बनी प्रसून-कली।
कहते थे, ”बाहें बढ़ा लिपटकर करो मुझे कृतकृत्य प्रिये।
दो उसे अधर-पीयूष पिला जिस मुख ने लोचन-नीर पिये।“
आ, वही अभागन विवश पड़ी बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥62॥