तुम डुबोगी मँझधारों में / विमल राजस्थानी
चुपचाप धुँआ देता विसूवियस मौन, शान्त
तुम बैठ शिखर पर तोपों में बारूद भरो
इन बुद्धू जासूसों, बुलेट-संगीनों पर
ओ सिंहासनासीन रानी ! न घमंड-गुमान करो
ये राजनिति के दाँव-पेंच, यह वंशवाद
सेवा (?) करने की होड़, मोह सिंहासन का
जय-जयकारों की भूख, अमरता की लिप्सा
व्यामोह तालियों का, थोथे अभिनंदन का
कै कर देगा इतिहास समय के खंदक में
पूतना, ताड़का, सूर्पनखा कहलाओगी
पंजों से छाती फाड़ देश के लालों की,
कब तक अपने गुर्गों को लहू पिलाओगी ?
लावा उगले जन-क्रान्ति, अग्नि का घूर्मण हो
इससे पहले ही त्राहिमाम ! कह चिल्लाओ
पकड़ो जनता के चरण, आँसुओ रे रज धो
कुत्सित वादों के घेरे से बाहर आओ
नारी मा, पत्नी, बहन, क्रूर दानवी नहीं
उसकी छाती का लहू दूध बन जाता है
पर बना वज्र की छाती तुमने विष बाँटा
जो भी छूता, चिर निद्रा में सो जाता है
तुमने जिनको मृत समझा वे जी उठे आज
आखिर कब तक वे बोझ लकडि़यों का सहते
छाया ‘प्रकाश’ प्राणों का, युग करवट लेगा
तुम डुबोगी मँझधारों में बहते-बहते