तुम देवी हो नहीं / अज्ञेय
तुम देवी हो नहीं, न मैं ही देवी का आराधक हूँ,
तुम हो केवल तुम, मैं भी बस एक अकिंचन साधक हूँ।
धरती पर निरीह गति से हम पथ अपना हैं नाप रहे-
आगे खड़ा काल कहता है, मैं विधि, मैं ही बाधक हूँ।
विश्व हमारा दिन-दिन घिर कर सँकरा होता आता है,
प्राणों का आहत पक्षी दो पेंग नहीं उड़ पाता है।
किन्तु कभी बन्धन की कुंठा घेर सकी नभ का विस्तार?
उस का विशद मुक्ति-आवाहन तीखा होता जाता है!
लडऩा ही मेरा गौरव, मैं रण में विजयासक्त नहीं,
अपने को देने आया मैं वर का भूखा भक्त नहीं।
नहीं पसीजो, अवहेला में भी पनपेगा मेरा प्यार-
क्या घुट-घुट मरने वालों के उर होते आरक्त नहीं?
क्षण आते हैं, जाते हैं, जीवन-गति चलती जाती है-
ओठ अनमने रहें, काल की मदिरा ढलती जाती है।
घूम घुमड़ता है, फिर भी तम-पट फटता ही जाता है-
स्नेह बिना भी इस प्रदीप की बाती जलती जाती है!
मेरठ, 5 जनवरी, 1940