तुम नदी सी क्यों हो गई / हरेराम बाजपेयी 'आश'
तुम नद्दी सी क्यों हो गई,
ऊपर से नीचे बह गई,
तुम्हें सागर से मिलने की बजाए,
खुद सागर बन जाना था
पर पता नहीं,
समर्पण कर कहाँ चली गई,
तुम नदी सी क्यों हो गई,
तुम्हारी राह में
बचपन का भोलापन,
किशोरावस्था की किलकारियाँ,
जवानी की अगन,
बुढ़ापे का कफन,
सुहाग की चूनर,
वैधव्य की चादर
मर्यादाओं के रोड़े,
कलुषित अरमानों के फोड़े,
क्या कुछ नहीं आया,
तुम्हें तो एक बला बनना था,
पर तुम अबला बन गई,
मंजिल खुद राह में क्यों खो गई,
तुम नदी सी क्यों हो गई,
तुम सुख गई तो कोसा गया,
भावनाओं की बाद पर लांछन लगे,
पर तुम्हें सभी भले लगे,
अपने भी, पराए भी, और वह भी
जिसने तुम्हारी शुष्क रेत पर नाव चलाई,
और वह भी,
जिसने जवानी के जल में आग लगाई,
तुम्हें तो पहाड़ बनना था,
पर तुम नदी बन गई।
कठोर होना था पर कोमल हो गई।
तुम नदी सी क्यों हो गई।
शब्दों के माध्यम से तुम्हारे पास जो भी आया,
भाववश तुमने उसे अपनाया ,
तुम्हें तो एक छोटी सी कविता बनना था,
पर तुम एक लंबी सी कहानी बन गई,
अक्षरों के जाल में मछ्ली सी क्यों फँस गई,
तुम नदी सी क्यों हो गई॥