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तुम नहीं आये / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
तुम नहीं आये
तरसता दिन
तड़पती रात
आख़िर बात क्या है
वक़्त के साँचे में भर बातें तुम्हारी
मन के ख़ालीपन में जाकर जम गई हैं
और भारी बीम सी तनहाइयाँ सब
याद के कुछ कालमों पर थम गई हैं
खंडहर ये
प्यार का है
या कि मेरा घर बना है
क्रेन सा होकर खड़ा ये तन हमारा
जिंदगी के बोझ से है चरमराता
कम्पकों से कँप रहे कंक्रीट सा ये
दिल की पागल धड़कनों से थरथराता
बन रहा
दिल का महल
या प्यार का ये मक़बरा है
गर न दोगे साथ तुम कंक्रीट बनकर
मैं अकेला लौह पिंजर क्या करूँगा
घातु हूँ पर टूट जाऊँगा लचककर
ज़िन्दगी का बोझ कैसे सह सकूँगा
बिन तुम्हारे
इस अकेले गात की
औक़ात क्या है