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तुम नहीं फ़ितना-साज़ सच साहब / मीर तक़ी 'मीर'
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तुम नहीं फ़ितना-साज़ सच साहब
शहर पुर-शोर इस ग़ुलाम से है
कोई तुझसा भी काश तुझ को मिले
मुद्दा हम को इन्तक़ाम से है
शेर मेरे हैं सब ख़्वास पसंद
पर मुझे गुफ़्तगू आवाम से है
सहल है 'मीर' का समझना क्या
हर सुख़न उसका इक मक़ाम से है