तुम नहीं हो / रणजीत
तुम नहीं हो
पर कमरे में फैली हुई है तुम्हारे चेहरे की गोरी चिकनी ख़ुशबू
कि अचानक कोई पुस्तक पढ़ते-पढ़ते
अपने चेहरे के बहुत नज़दीक महसूस होता है
तुम्हारा चेहरा
और मैं हठात् अपनी गर्दन पर से
तुम्हारी साँसों का गुदगुदाता हुआ स्पर्श पोंछने लगता हूँ ।
तुम नहीं हो
पर कागज़ की रंग-बिरंगी नावों की तरह
तुम्हारे हल्के-फुल्के चुम्बन
मेरे कमरे की हवा में तैर रहे हैं।
रोशनदानों की राह से मेरे पास चले आते हैं कभी
दो नन्हें-नन्हें सफ़ेद कबूतरों की तरह
पंख फड़फड़ाते हुए तुम्हारे आलिंगन ।
और धीरे से दरवाज़े का पर्दा हटा कर
झाँक जाते हैं अक्सर
तुम्हारे लाज से लाल समर्पण में पिघले हुए इरादे ।
तुम नहीं हो पर तुम्हारे शरीर की ऊष्मा
अब भी मेरे बिस्तर में बसी हुई है
अब भी बिछा हुआ है मेरी क़िताबों पर तुम्हारा स्पर्श
बिखरी हुई गुलाब की ताज़ा पंखुरियों की तरह ।