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तुम न आओगी, सखी, तो / कुमार रवींद्र

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तुम न आओगी
सखी,तो
कौन आएगा भला इन घाटियों में
 
रोज़ सूरज यहाँ आकर
तुम्हें ही तो खोजता है
वह नदी के घाट पर
सूने स्वयंवर आँकता है
 
डूबता वह कभी
जल में
कभी छिपता चीड़ की इन टहनियों में
 
गईं जब से तुम यहाँ से
कोई पंछी नहीं बोला
यह गुफा-घे -
द्वार इसका
किसी ने भी नहीं खोला
 
इन्द्रधनुषी रंग भी तो
नहीं दिखते
देवघर की थकी-हारी झंडियों में
 
में अकेली गूँज-सा
बरसों यहाँ फिरता रहा हूँ
रोज़ संझा
बिन तुम्हारे
अगिनपाखी-सा दहा हूँ
 
यक्ष भी तो
नहीं हूँ मैं
ज़िक्र जिसका हुआ कविता-पोथियों में