तुम पसीना मत कहो है जाँ-फ़िशानी का लिबास / रम्ज़ अज़ीमाबादी
तुम पसीना मत कहो है जाँ-फ़िशानी का लिबास
धूप में चलते हुए रखते हैं पानी का लिबास
पर्दा-पोशी कम से कम होती है हर किरदार की
पैरहन लफ़्ज़ों का बनता है कहानी का लिबास
फिर उजाले से सफ़र होगा अंधेरे की तरफ़
जब उतारेंगे बदन से उम्र-ए-फ़ानी का लिबास
साथ चलते हैं चहकते बोलते इल्ज़ाम भी
बे-शिकन होता नहीं यारो जवानी का लिबास
इंकिलाब-ए-वक़्त का ये भी करिश्मा देखिए
है नुमाइश के लिए अब आँ-जहानी का लिबास
मुफ़लिसी ने कर दिया है उस की ख़ुद्दारी का ख़ून
वो पहनता है किसी की मेहरबानी का लिबास
हुक्मराँ तो दफ़्न हैं तारीख़ के औराक़ में
दर्स-ए-इबरत दे रहा है हुक्मरनी का लिबास
जगमगाता है ग़ज़ल के जिस्म पर हर दौर में
मैला होता ही नहीं जादू-बयानी का लिबास
चंद साअत भी ख़ुशी की अपनी क़िस्मत में कहाँ
रास कब आया है मुझ को शादमानी का लिबास
‘रम्ज़’ वो अहद-ए-गुलामी हो कि दौर-ए-हुर्रियत
इश्तिहार-ए-मुफ़लिसी हिन्दुस्तानी का लिबास