भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम प्रेमनिर्झर / कविता भट्ट
Kavita Kosh से
तुम प्रेमनिर्झर, 'शैल...' सिंचित करो;
मन वियोगी न हो, अभिरंजित करो।
जग के क्लेश घुलकर बह जाएँ सारे;
कुछ ऐसे निहारो तुम,ओ! प्राण-प्यारे।
नैनों में सपने, मनोभूमि अभी उर्वरा है,
कुसुमित -सा यौवन, कलियों ने धरा है।
मैं कह भी देती, हैं मर्यादा के बन्धन,
मैं प्यासी धरा, तुम बरखा की रुनझुन।
जी भर के बरसो, सावन की निशा में,
प्रेम अपना पुलकित, नभ की दिशा में।
आकाशगंगा ने सुन्दर शय्या सजाई,
तेरी प्रेमचूनर, सतरंगी मैं ओढ़ आई।
जीवन- 'कविता' में रस-छन्द बुनना,
अलंकार सारे तुम स्वच्छन्द चुनना।
तुम प्रेमनिर्झर, 'शैल...' सिंचित करो;
मन वियोगी न हो, अभिरंजित करो।