भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम बचकर रहना / राजेश श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब तक सच ने बाजा़र देखे थे
अब सपने होंगे नीलाम
शयन, तुम बचकर रहना।

जाने कब उभर आई अनजाने ही
आंगनों में दरार विभाजन की
सूद-दर-सूद वसूलती चले
जिंदगी:कूर बही महाजन की
चढ़ता ब्या ज छोड़ चला विरासत में
अगली पुश्तों के नाम
नन्द न, तुम बचकर रहना।,

बस दो आंसू ही मिले विरासत में
और कुछ हमदर्द दर्दों का साथ
वरना तो भरी दोपहरी में भी
साए तक कर गए विश्वामसघात
आंखो का खारा अनुदान चखा होंठों ने
कह किशमिशी जाम,
नयन, तुम बचकर रहना।

चाहे जितनी भी दे दो आहुति
झोंक दो वेदी में कितनी हा-हा
घाती सुख हों या अनुगामी दु:ख
अन्त त: होना है सब कुछ स्वांहा
यज्ञवेदी के मुंह लग गया है
रक्तवरंजित प्रणाम,
हवन, तुम बचकर रहना।