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तुम बसन्त / मंजूषा मन
Kavita Kosh से
एक सुबह
बसंत ने आकर
खिड़की पर दी दस्तक
मैंने देखा
मन का आकाश
आग सा धधक उठा है
पलाश के फूलों से...
जमीन पर झरे फूल
अंगारों से सुलगते दिख पड़ते हैं
गेहूँ की सुनहरी अधपकी बालियाँ
सरसों के पीले फूल
सब कुछ सुलग रहा है...
इन अंगारों पर दौड़ पड़ता है मन
बेतहाशा
खोने लगता है काबू...
बसंत के ये निशान
लेकर आए हैं
फूलों की क्यारियों सी महक
और तुम…
तुम भी तो अभी ही आए हो।