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तुम बिनु चैन हुँ भयो अचैन / स्वामी सनातनदेव

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राग कोशिया, कहरवा

तुम बिनु चैनहुँ भयो अचैन।
औरनकों सुख-सम्पद भासै, मो मन कछु समुझै न॥
सम्पद हूँ विपदा-सी लागत, धीरज हियो धरै न।
बीत्यौ जनम विना तव पदरति, अब कछु सूझि परै न॥1॥
दियो बहुत पै हियो न मानत, तासों काज सरै न।
दाम<ref>पैसा, धन</ref> नाम सों काम सरत का, जो प्रिय कान<ref>न सुनें</ref> करै न॥2॥
पढ़ि-लिखि ही सब वयस बितायी, तासों कछू बनै न।
संत-संग हूँ कियो, भयो का, जो मन नाहि गुनै न॥3॥
साधन-आराधन हूँ कीन्हें, पै कछु रस सरसै न।
कहा भयो बीजहुँ बोयो जो जलधर जल बरसै न॥4॥
तरसत हैं ये नैन, दरस बिनु कैसे पावें चैन।
पै सपनेहुँ में मिली न झाँकी, आसा हूँ कछु है न॥5॥
हियमें लगी ललक-सी प्रीतम! फल कछु दीख परै न।
जो तुम कृपा न करहु स्याम! तो निज बल कछू करै न॥6॥
कहा करों कोउ पन्थ न सूझत, मनहुँ तुमहिं बिसरै न।
जीवन अब जीवन नहिं लागत, आसा जदपि भरै न॥7॥
तुमने सदा सुनी सब ही की, मेरी कान परै न।
कहाँ लगायी देर, हियो अब नैंकहुँ धीर धरै न॥8॥

शब्दार्थ
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