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तुम बिन कौन गुने / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
तुम बिन कौन गुने यह पीर!
चहुँ दिसि घोर चकोर-अमावस,
झंझावत, शिशिर में पावस;
अंजन-अन्ध नयन-मन कातर,
अनवधि आस अधीर!
तट की टेर दशन-विष-लहरी,
तर्जनियाँ, दुनिया की, प्रहरी,
समय-सँकेत; कदम्ब-तले मन,
तन छदहीन करीर!
मन के चोर! तुम्हीं चोरी से,
या, चाहे तो, बरजोरी से,
मेरे इस घेरे में आओ,
मुक्ति बने जंजीर!