भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम बिन / संजीव 'शशि'
Kavita Kosh से
अंतर तक कंपित हो जाता।
प्रश्न कभी जब मन में आता-
तुम बिन जीवन कैसा होगा ?
हरे, बैगनी, नीले, पीले।
तुमसे ही दिन-रैन रँगीले।
तुमसे ही पाते हैं सरगम।
तुमसे मेरे गीत सुरीले।
अंतर तक कंपित हो जाता।
प्रश्न कभी जब मन में आता-
तुम बिन फागुन कैसा होगा ?
तुमसे ही मधुरिम पुरवाई।
नभ में मेघों की अँगड़ाई।
तुमसे सावन के झूले हैं।
रिमझिम से हरियाली छाई।
अंतर तक कंपित हो जाता।
प्रश्न कभी जब मन में आता-
तुम बिन सावन कैसा होगा ?
तुमसे ही है मेरा होना।
तुम ही मेरा चाँदी-सोना।
तुम से ही घर में उजियारी।
सुरभित घर का कोना-कोना।
अंतर तक कंपित हो जाता।
प्रश्न कभी जब मन में आता-
तुम बिन आँगन कैसा होगा ?