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तुम बुझाओ प्यास मेरी या जलाए फिर तुम्हारी याद / हरिवंशराय बच्चन
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तुम बुझाओ प्यास मेरी या जलाए फिर तुम्हारी याद|
स्वर्ण-चाँदी के कटोरों
में भरा था झलमलाता नीर,
में झुका सहसा पिपासाकुल
मगर फिर हो गया गंभीर--
भेद पानी और पानी,
प्यास में औ’ प्यास में भी भेद,
तुम बुझाओ प्यास मेरी या जलाए फिर तुम्हारी याद|
कम अधर, कम कंठ में पर
प्राण में जो निर्नियंत्रित आग,
एक है मालूम तुमको
जो रही है वह सदा से माँग,
होठ भीगे हों, हृदय हो
किंतु मरु की शुष्क, सूनी आह,
क्या बनूँगा आज अपना ही स्वयं दयनीय मैं अपवाद।
तुम बुझाओ प्यास मेरी या जलाए फिर तुम्हारी याद|