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तुम भी कब तक खैर मनाते फैज़ाबाद/ अशोक कुमार पाण्डेय

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(एक)

सारी किताबों के मुक़ाबिल बस एक खंजर है
हमारे मुस्तकबिल के बरक्स माज़ी है एक घाईल

वे सवाल नहीं पूछते
वे सवालों का जवाब नहीं देते
वे तर्कों के बदले चुप्पियाँ परोसते हैं
वे झूठ को फैसलाकुन आत्मविश्वास से कहते हैं

और हम?
बस चुप
बस सवाल
बस जवाब
बस तर्क
बस सच

ये सच है किसाफ़ पानी में कमल कभी नहीं खिलते
पर हमारे सच को भीतो तुम्हारे होठ कभी नहीं मिलते

(दो)

हमारी आलमारियाँ किताबों से भरी हैं
और हमारी ज़िन्दगियाँ सवालों से

हम हर हत्या के बाद खड़े हुए काले झंडे लिए
हम हर हत्या के पहले शांति जुलूसों में चले
हमने हर वारदात के पहले किया सावधान
हम हर मुसीबत का लिए फिरते रहे समाधान

बस जब चली गोली हम नहीं थे वहाँ
बस जब ज़हर बरसा हम किये गए अनसुने
बस जब शहर जला हमें कर दिया गया शहर-ब-दर

हम अपनी खामोशियाँ के गुनाहगार रहे
वे जूनून बनके सबके सर पे सवार रहे

(तीन)

कहाँ है फैजाबाद?
दिल्ली से कितना दूर?
कितना दूर अहमदाबाद से?
रामलीला मैदान से कितना दूर?
फार्मूला वन रेस के मैदान से कितना दूर?
संसद भवन से तो खैर हर चीज़ हज़ार प्रकाश वर्ष की दूरी पर है....

टीवी चैनल पर दंगो की ख़बर नहीं है
वहाँ लिखा है कल बस कुर्सी बदल रही है

(चार)

यह किसका लहू है कौन मरा?
(सवाल पूछ-पूछ के दिल अभी नहीं भरा?)

यह मियाँ का लहू है और यह बगल वाला हिन्दू का
डाक्टर से नहीं जिन्ना और सावरकर से पूछो
दोनों पहचानते थे अपना-अपना लहू
हम पागल थे जो कहते थे
लाल हैं दोनों

हम? पागल थे?

लहू लाल है एक रंग का कहने वाले पागल थे ?
बासंती चोले में फाँसी पर चढ़ने वाले पागल थे?

(पाँच)

कविता से बस उम्मीदों की उम्मीद किये बैठे न रहो

हम तो हैं अभिशप्त गवैये
गीत अमन के गायेंगे ही
चाहे काट दो हाथ हमारे
सच का ढोल बजायेंगे ही

तुम कब सच को सच कहके चीख उठोगे बोलो तो..

हम तो पाश की मौत मरेंगे
हम तो अदम के शेर कहेंगे
हम तो इस शमशान में भी
जीवन का आह्वान करेंगे

तुम कब मुर्दों वाले खेल के बीच खड़े हो हूट करोगे..बोलो तो....