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तुम भी चलो, हम भी चलें / प्रताप नारायण सिंह

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आरोह या अवरोह होगा, राह में किसको पता
होगी प्रचुरता कंटकों की, या सुमन की बहुलता
ज्योतिर्मयी होंगी दिशाएँ, या कुहासों से भरी
रजनी शिशिर की या अनल की वृष्टि करती दुपहरी

चलना नियति है; चेतना का है यही आधार भी
कर्तव्य भी अपना यही, बस है यही अधिकार भी
है अग्निपथ तो क्या हुआ, कटिबद्धता उर में पले
उच्छ्ल जलधि ले प्राण का, तुम भी चलो, हम भी चलें

अवरोध कितने ही मिलेंगे राह को रोके हुए
संकेत बहुतेरे दिखेंगे दिग्भ्रमित करते हुए
फुँफकारते विषधर बहुत से रुढ़ियों के भी खड़े
बहु झुंड होंगे वर्जना के नागफनियों से अड़े

पग पग मिलेंगी वासनाएँ ओर अपनी खींचती
औ' वृत्तियाँ कुत्सित डरातीं, मुट्ठियों को भींचती
पर नवसृजन का स्वप्न स्वर्णिम, चक्षुओं में नित गढ़ें
संबल बनाकर सत्य को, तुम भी बढ़ो, हम भी बढ़ें

हम अनवरत चलते रहें, हो तप्त कितनी भी धरा
हो वेदना कितनी सघन, हो पाँव छालों से भरा
जलते हुए वड़वाग्नि से है अब्धि कब विचलित हुआ
कब रोक पाया है जलद, नित अग्रसर रथ भानु का

कोई नहीं इतना सबल जो टिक सकेगा राह में
पावक, वरूण, क्षिति, वायु, नभ पलते मनुज की बाँह में
भर आत्म उर्जा से निरन्तर, मनुजता की राह में
सोपान नित उत्थान के, तुम भी चढ़ो, हम भी चढ़ें