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तुम भूल गये सब कुछ / मनीषा जैन

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गर्म कमरे की बासी हवा की बू में
मजबूरी फ्रिक फाकापरस्ती
कमजोर अहसासों से भरी
तुम्हारे से रिहाई की मोहलत
बरसों से जमे जालों के भीतर
गंदे मिट्टी के तेल की गंध
में तैरती इच्छायें

खौफज़दा रहता है हमारा चेहरा
अपनी ही चीखों को गले में दबाये
जेल चली गयी बहुत सारी औरतंे
जुर्म क्या था उनका?
रत्ती भर ही तो था
उन्होनें ज़रा देर
आसमान में उड़ने की जुर्रत की थी
बिना जाने उनके मन का तसब्बुर
शिकारी ने उन पर गुलेल से
अद़ने से पत्थर के टुकड़े को दा़ग दिया

और वे औरते आँख मूंद कर
भूल गई अपने होने का अहसास
जिन्होनें दिया था तुम्हें
खून दूध पानी
तुम भूल गये सब कुछ
ताक़ पर रख दियें
तुमने अपने कान
उन्हें याद रहे वही
गर्म गर्म दूध चूसते बच्चे के होंठ
तुम भूल गए उनसे वादों का समीकरण
उन्हें याद रहा सिर्फ सात फेरों का चक्कर
तुम्हें याद रही सिर्फ देह
चीटिंयाँ रेंगती रहीं पूरे शरीर में उनके
क्या तुम भूल गए?
उनका हर रात देह में मरना
और तुमने जिया हर रात को मह मह कर
उन्होनें जी हर रात मर मर कर
वे हर सांस में मरी
तुमने तो सीखा बस मापना तौलना
उनका मणियों सा जीवन
तुमने उनकी अस्थियाँ पानी में बहा दी
अब मृत्यु उनके बस में तो नहीं
आसमान में उनकी मृत्यु का
एक परिंदा घूमता है निरंतर।