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तुम मुझे जो खुला एक आकाश दो / रमेश तैलंग

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चाँदनी की नदी में नहाऊँ कभी,
बादलों की पतंगें उड़ाऊँ कभी,
तुम मुझे जो खुला एक आकाश दो
तो परिन्दे-सा उड़कर दिखाऊँ अभी ।

फूलों पर नाचती तितलियाँ देख कर,
मेरा मन जा रहा हाथों से छूट कर,
सोचता हूँ हवाओं के कंधे पर चढ़
सारी दुनिया का चक्कर लगाऊँ कभी ।

एक सपना था कल रात आया मुझे,
पर्वतों ने हो जैसे बुलाया मुझे,
दोस्त हों मेरी जो बर्फ़ की चोटियाँ
लौटकर अपने घर फिर न आऊँ कभी ।

ख़ूबसूरत है दुनिया ये कहते हैं सब,
चैन से पर कहाँ इसमें रहते हैं सब,
एक पल की भी फुरसत किसी को नहीं
मन की बातें ये किसको सुनाऊँ अभी ?