भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम मुरझाओ नहीं / पंकज चौधरी
Kavita Kosh से
तुम मुरझाओ नहीं
तुम्हें कोई नहीं रौंद सकता
कोई नहीं कुचल सकता
भला दूब को कोई रौंद पाया है आजतक
उसे कोई कुचल पाया है अबतक
उसे लाख रौंदो
लाख कुचलो
वह उग ही आती है
धरती का सीना फाड़कर
उद्भिज की तरह
तुम बिलकुल वही दूब हो
जिसकी जड़ें बहुत-बहुत गहरी होती हैं
पाताल तक
शैतानों की टापें तो हवा-हवाई होती हैं!