तुम में यह क्या है / अज्ञेय
तुम में यह क्या है जिस से मैं डरता हूँ और घृणा करता हूँ? यह संहत छाया क्या है जिस को भेद कर मेरी दृष्टि पार तक नहीं देख सकती?
क्या यह केवल तुम्हारे गत जीवन की ही छाया है, केवल तुम्हारे जीवन का एक अंग जिस पर मेरे जीवन की छाप नहीं पड़ी- एक अंग जिस पर दूसरों का अधिकार रहा है और जिस में तुम ने दूसरों का प्यार पाया है? क्या यह तुम्हारे स्वतन्त्र और विशिष्ट आत्मा के प्रति ईष्र्या है, केवल ईष्र्या?
किन्तु मैं तुम्हारे उस गत जीवन और नष्ट प्रेम से क्यों ईष्र्या करूँ जिसे तुम ने मेरे जीवन और मेरे प्रणय के आगे ठुकरा दिया है?
मैं विजयी हूँ, मैं ने तुम्हारे भूत, वर्तमान, भविष्य को जीत लिया है, तुम्हारी इस शरीर-रूपी दिव्य विभूति पर अधिकार कर लिया है, पर अभी तक इस तत्त्व को नहीं पा सका, नहीं समझ सका।
दिल्ली जेल, 25 फरवरी, 1933