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तुम यहीं हो / आद्याशा दास / राजेंद्र प्रसाद मिश्र

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बहुत पहले तुम चले गए
मेरे पहचानने से पहले खुद को और तुम्हें
वे लोग फूट-फूटकर रोये
मैं नहीं रोयी,
क्योंकि तुम्हारे चले जाने की कमी समझने को
मैं थी बहुत छोटी ।
 
उन्होंने कहा,
तुम इंसान की सेवा करते-करते
थककर चले गए तारों की दुनियाँ में
किसी और की सेवा करने
जिसमें नहीं होती थकान
होती है प्रशांति ।

मैं इतना जानती थी
इंसान पैदा होता है और मर जाता है
इसलिए क्यों, किस तरह
किस वजह से तुम चले गए
पूछ-पूछकर उन्हें परेशान नहीं किया ।
और उस दिन सहसा
एक कागज के आईने में
तुम दिख गए मेरी आँखों को ।
बीते कल का धूसर हाथ लगकर
पीला पड़ चुका था वह कागज का टुकड़ा
अपनी माँ की बकसिया में मैंने देखा
मुझे पहचानी नज़रों से देख रहा है,
मुझे बुला रहा है,
प्यार से, लाड़ से, एक ही साँस में .... ।

पिताजी की याद बड़े जतन से सहेजे
अपनी माँ की निर्भय बकसिया से
अपनी माँ के अश्रुपूर्ण हृदय से
स्मृति के उस टुकड़े को चुराकर
मैं भाग आया बरामदे के एक कोने में
कैशोर-कुतूहल से एक-एक करके छू गया
उसके हर अक्षर को,
और समझ गया वह है बीते कल की लिखी
तुम्हारे हृदय की एक नन्हीं कविता ।
उत्कंठा से उसे जल्दी-जल्दी पढ़ गया,
फिर पढ़ा धीरे, अति धीरे, रुक-रुककर
खुद को बड़ा समझनेवाले
अपने छोटे सब के बाँध को
छिन्न-भिन्न करके, तोड़-मरोड़कर
टुकड़ा-टुकड़ा कर देने तक
मैंने उस कविता को पढ़ा और पढ़ता गया ।

और ठीक उसी क्षण मैं समझ गयी.
जीवन की अंतिम बात क्या है
मौत क्या है, तुम्हारे न होने का
सूनापन क्या है ---
सहज आँसुओं से
तुम्हें न समझ पाने का धुंधलका साफ हो गया
और मैं समझ गई
तुम्हारे न होने की कमी से
कितना दुख, कितना विषाद भरा है मेरी माँ में ।

अचानक अदृश्य हवा के कोमल स्पर्श ने
मेरे आँसुओं की धार पोंछ दी
और मुझे अहसास हुआ
वह स्पर्श हवा का नहीं, वह था
तुम्हारे यत्नशील, निपुण
कल्याणकारी मनुष्य बनाते हाथ का स्पर्श
मैं समझ गई
तुम मेरे भीतर हो
मेरी कविता में
मेरे गीतों में
हमारे ही भीतर ।