भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम यह मत कहना / केशव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रेत के कण-सी चमकती
पुकार
उठेगी
स्मृति की किसी बंद दराज से
और मैं
लाल चटख फूलों से
फ़ूटती
छोटी-सी दुनिया को
उठाकर
रख दूँगा तुम्हारे गोद में

तुम यह मत कहना
कि तुम्हारे पास उँगलियाँ नहीं
उसे सहलाने के लिये

तुम्हारी खिड़की की चोखट पर
बैठी
        नीली चिड़िया
गायेगी
       कोई यायावर-गीत
तुम यह मत कहना
कि तुम्हारे पास होंठ नहीं
इसे चुराने के लिए

हवा के पँखों पर
उड़ता हुआ
         कहीं से आयेगा
एक बीज
तुम यह मत कहना
कि तुम्हारे पास धरती नहीं
इसे ग्रहण करने के लिए

सच
तुम्हारी गोद
है उस धरती की तरह
जिसमें उगता हुआ पौधा
तुम्हारे होठों तक
       पहुँच रहा है

क्या अब भी
कहोगी तुम
वृक्ष बनकर यह
नहीं खींच लायेगा हमें
अपनी घनी छाँव में?