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तुम रहे भाल पर झुके प्राण! मैं रही विनिद्रा-बीच पड़ी / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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तुम रहे भाल पर झुके प्राण! मैं रही विनिद्रा-बीच पड़ी।
मृदु पाणि-स्पर्श से जगा दिया दृग पर चुम्बन की लगी झड़ी।
अपने मृदु करतल बीच उठा प्रिय तुमने मेरी मृदु काया।
निज नयन-पलक से मेरी दृग-पलकों को तुमने सहलाया।
कह रहे, “तृप्त कर दो हृदयेश्वरि! प्रेम-भीख माँगता प्रिये।
परलोक-लोक की सकल सम्पदा तेरे हित त्यागता प्रिये! “
हे भाव-भिक्षु! हो कहाँ, विकल बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥75॥