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तुम रूप संवारा करती हो / ईशान पथिक
Kavita Kosh से
तुम रूप संवारा करती हो
दर्पण शर्माने लगता है
तुम जब मुस्काया करती हो
मन मेरा गाने लगता है
तुमको देखूं तो लगता है
तुम ही हो वो अनजानी
जिसके साथ युगों से है
मेरी पहचान पुरानी
तुमको पाने के खाब दिखे
वह पूरे होंगे लगता है
तुम रूप संवारा करती हो
दर्पण शर्माने लगता है
जो हाथ तुम्हारा पकड़ू तो
यह मत कहना छोड़ो जी
वादे थे तुमने किये कभी
उनको अब यूँ मत तोड़ो जी
जब दूर रहो तुम मुझसे तब
जीवन ये सूना लगता है
तुम रूप संवारा करती हो
दर्पण शर्माने लगता है
तुम साथ चलो जो मेरे तो
फिर रस्ता मंज़िल हो जाए
तुम पास रहो यदि मेरे तो
सूनापन महफ़िल हो जाए
जिस गीत को छू दो होठों से
वह गीत सुहाना लगता है
तुम रूप संवारा करती हो
दर्पण शर्माने लगता है