तुम लिखते रहना / मोहिनी सिंह
तुम लिखते रहना
जिसके सिरे हैं ख्वाबों की खिडकियों पर बंधे हुए
उन नज्मों की डोर पे मेरी रातें चलती हैं
मैं समझती हूँ कि ये कारीगरी कुछ और नहीं
ये ग़ज़लें मेरे अक्स सी तुझमें पलती हैं
तेरे हर 'तुम' में दर्ज है मेरी खुद को ढूंढने की कोशिश
जब लिखना तो ज़रा उलझा उलझा लिखना
बच्चे बना लेते हैं चाँद तारे और खिलौने
जरूरी है बस आसमाँ में बादलों का दिखना
छज्जों के बिच झांकते आसमां से तुम
शहर की सहर में धूप की गुंजाइश कितनी
सर्दियों में अलाव सी तेरी नज्में सेंकती मैं
जमते जज्बातों की हो बस ख्वाइश इतनी
न कागजों पे मेरे होंठों के निशान मिलेंगे
न उन अंगारों का हासिल मेरा दामन होगा
उधर तेरी नज्मों के चराग़ हों इधर मेरी वीरानियाँ
बीच में तेरे तगाफ़ुल का चिलमन होगा।
मैं चुप सी पढ़ूंगी
तुम लिखते रहना