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तुम विश्वास की तरह रहते हो मन में / मनीषा पांडेय
Kavita Kosh से
नहीं,
तुम कोई नहीं
हाड़-मांस का इंसान नहीं
किसी का पति, प्रेमी, बेटा, पिता कुछ भी नहीं
कोई रिश्ता नहीं, कोई संबंध, कोई पहचान,
कोई पद-नाम-प्रतिष्ठा
कुछ भी नहीं
तुम्हारा कोई आकार नहीं
रूप-रंग नहीं
तुम वो नहीं कि जिसे जब चाहें छूकर महसूस कर लें
रख लें अपने घर में अपने कीमती सामानों की तरह
उसे चाहें अपने चाहने के हिसाब से, जैसा हम चाहें
नहीं,
तुम इसमें से कुछ भी नहीं
तुम प्रकृति का आदिम अनहद राग हो
जो कभी कहीं से आया नहीं था
कभी कहीं गया भी नहीं
वो तब से वैसे ही मौजूद है जबसे जीवन
तुम चूम लिए जाने की हड़बड़ी नहीं हो
न पा लिए जाने की बेचैनी
तुम विश्वास की तरह रहते हो मन में
जैसे
प्रेम में दुख पाई स्त्री की आंखों में आंसू रहते हैं