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तुम समझ रहे हो शूल जिन्हें / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
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तुम समझ रहे हो शूल जिन्हें
मेरे पथ के वे फूल बने।
मैं उन पर ही चल कर अब तक
इतना आगे बढ़ पाया हूँ;
हँसते-हँसते अपनी नौका
मझधार तलक खे लाया हूँ।
तुम समझ रहे तूफान जिन्हें
वे ही मेरे उपकूल बने॥1॥
मेरे जीवन की सरिता की
धारा अविरल बहती जाती;
कब थाम सके हैं बाँध वेग?
हँस-हँस कर यह कहती जाती।
तुम समझ रहे पर्वत जिनको
मेरे प्रवाह में धूल बने॥2॥
आँधी-वर्षा में भी प्राणों
का दीप नहीं बुझ पाया है;
बिखरे साँसों के तार, किन्तु
यह गीत नहीं रुक पाया है।
तुम समझ रहे प्रतिकूल जिन्हें
वे ही मेरे अनुकूल बने॥3॥
मैं हूँ उस मरुथल का वासी
जिसकी आहों में आग भरी;
पग-पग पर जली चिताओं की
जिसकी राहों में राग भरी।
तुम समझ रहे अँगार जिन्हें
वे मेरे लिये दुकूल बने॥4॥