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तुम सुखी रहो, संतृप्त रहो / हनुमानप्रसाद पोद्दार

(लावनी तर्ज दूसरी-ताल कहरवा)

तुम सुखी रहो, संतृप्त रहो, संतुष्ट रहो, नित निर्विकार।
उमड़े उरमें निर्मल पावन रस-सुधा-सिन्धु अविरत अपार॥
तुम डूबे रहो नित्य उसमें बन स्वयं रसामृत-सुखागार।
देखो प्रभुका ही नित नूतन अति मधुर रूप सौन्दर्य-सार॥
रह जाय न कुछ भी अन्य भाव, प्राणी-पदार्थ जगके असार।
घुल-मिल जा‌ओ प्रभुमें अनन्त, कर देश-कालकी अवधि पार॥