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तुम सुन रहे हो ना / अंजना टंडन

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तुम्हें
जब-जब मैं कहती हूँ लौट जाओ
डबडबायी आँखों को झुका सुन पाती हूँ
तुम्हारी चुप्पी में एक छन्न-सी आवाज,

टूटे कांच की किरचियाँ समेटती नहीं
नंगे पाँव चलते
देखती रहती हूँ उनका लाल होना
एक अंधी सुरंग में
जो जाकर बंदिशों के देश में खुलती है कहीं,

मुझे नहीं स्वीकार
पिछे से आती हँसती हुई ग्लानि
और अक्सर खो देती हूँ
उस एक पल में इंसान होने का अधिकार
कभी नहीं खो पाई ये कशमकश,
पर अब जब दिन गिने है
आओ..देखो
मेरी आँखों की पुतलियों में ढलते सूरज का रंग है
अबीर की मानिंद
इनमें टिको कुछ देर
दो जोड़ी आँखों की संयुक्त प्रार्थनाओं में
सात सुरों की तृप्ति बुन सके
फिर तुम चले जाना
हाँ..सचमुच चले जाना तुम
मल्हार के रास्ते बारिशों के देश,

तुम सुन रहे हो न प्रिय
हाँ..यह सब होते-होते
हो सकता है
अचानक कभी जा ब जा
उग आए कोई गुलमोहरी फूल
मेरी देह पर
उस लम्हे से पहले लौट जाना तुम
काल और परिस्थिति की
ठीक उस अनुकूलता तक
जब सुवासित हथेलियों का सारा हरा रंग
लौटा के ला सको किसी वाजिब तरिके से
उस समय.......तक
साया बन साये पर बिखरे रहना
किसी पुकार में वास करके...।