तुम से तुम तक / प्रगति गुप्ता
न जाने तुम
कब से सहेजते रहे
मेरे शब्दों में मुझे चुपचाप ही
बग़ैर बताये बग़ैर जताए
कि प्यार करते हो
तुम मुझ से बेहिसाब...
बेवज़ह ही मैं हरदम तुमको
तुम्हारी कही बातों में खोजती रही...
और मिले मुझे जब तुम
मुझ से विदा लेने के बाद
तुम्हारी ही डायरी के पन्नों में
जहाँ-
सिर्फ मैं ही मैं बिखरी थी...
असंख्य कहे हुए मेरे शब्दों में
शीर्षक से लेकर हस्ताक्षर
और लिखी हुई तारीख़ से
जुड़ी बातों तक
पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक...
और स्वयं के हस्ताक्षर कर
लिख छोड़े थे तुमने
संस्कारों की डोरियों से बंधे
सिर्फ कुछ वाक्य
और जिन्हें रुकी हुई साँसों से
पढ़ती गई धुंधली पड़ती
मेरी अश्रु भरी आंखें-
प्रिय-
जानता हूँ अनकहा ही
रहा मेरा सब कुछ
तुम्हारा होते हुए भी तुम्हारे लिए.।
और तुम ही तुम रही मेरे जीवन में,
और मेरा जीवन रहा बस
'तुम से तुम तक' ही...