भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था / हबीब जालिब

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था
उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था

कोई ठहरा हो जो लोगों के मुक़ाबिल तो बताओ
वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था

आज सोए हैं तह-ए-ख़ाक न जाने यहाँ कितने
कोई शोला कोई शबनम कोई महताब-जबीं था

अब वो फिरते हैं इसी शहर में तन्हा लिए दिल को
इक ज़माने में मिज़ाज उनका सर-ए-अर्श-ए-बरीं था

छोड़ना घर का हमें याद है 'जालिब' नहीं भूले
था वतन ज़ेहन में अपने कोई ज़िन्दाँ तो नहीं था