तुम से / नरेन्द्र शर्मा
नादान, तुम्हारे नयनों ने चूमा है मुझको कई बार!
कर लिये बन्द क्यों आज, कहो, मानस के दो घनश्याम द्वार?
सोचा होगा तुमने शायद उन आँखों में मैं घर कर लूँ,
मैं पीकर उनके श्याम ज्योति अपने उर का अभाव भर लूँ,
इसलिये कदाचित हो न सके तुम इस याचक के प्रति उदार!
चुम मेरी चाह नहीं समझे, तुम मेरी थाह नहीं समझे,
याचक कुछ देने आया था, तुम उसको, आह, नहीं समझे!
ओ फूलों से हलके! तुमको बन गया प्रेम इसलिये भार!
तुमने तो भुला दिया मुझको, पर मैं तुमको कैसे भूलूँ?
जो मेरी होती वह आँखें तुम कहते--मैं कैसे भूलूँ!
मैं बहुत भुलाने की कहता, पर हार गया मैं बार बार!
निर्वासित तो कर दिया मुझे अपनी सम्मोहन चितवन से,
क्या इतना भी अवकाश नहीं दो गीत सुनो मुझ निर्धन के?
गुन गाते हँसनी आँखों के मेरे प्राणों के तार तार!
नादान, तुम्हारे नयनों ने चूमा है मुझको कई बार!