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तुम हर बार आती हो एकांत में / ध्रुव शुक्ल
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तुम हर बार आती हो एकांत में
जैसे पानी में उठती है तरंग
जैसे घोंसले में लौटती है चिड़िया
तुम नदी की धार होकर मुझे गुदगुदाती हो
मैं चित्र होकर डोलने लगता हूँ
अपने ही हृदय में तुम्हारे साथ
बहुत गहरे महसूस करता हूँ तुम्हारी धारा
पेड़ की तरह जड़ों में