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तुम हो क्या? / सुषमा गुप्ता
Kavita Kosh से
रात दो अक्षर जोड़ के सिरहाने रख लिये थे
पैर ठंडे थे बेहद पर ये हैरानी की बात न थी।
हैरान कर रहा था हथेलियों का पसीना।
एक ही वक्त पर दो अलग अनुभूतियों का होना
पता है कैसा होता है?
जैसे शीतल जल में बैठ कर जलना।
जैसे आग में बैठ कर ठंड़ा पड़ जाना।
रेगिस्तान की रेत को मुठ्ठी में दबाना
या समंदर का पानी पी जाना
दोनों मुर्खता भरी बातें हैं
पर चाहे-अनचाहे हम रेत के टीलों को हसरत बना लेते है
या समंदर में मुग्ध हो गोते लगाते
बेभूले ही खारे पानी को अदृश्य सुख का माध्यम
तृप्ति कहीं नहीं
जो नहीं है उसमें जीना
और जो है उसे नकार देना
यहीं इंसान की प्रवृत्ति है शायद
पर अछूता कौन है इससे?