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तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र / हनुमानप्रसाद पोद्दार

तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र, काठ की पुतली मैं, तुम सूत्रधार।
तुम करवा‌ओ, कहला‌ओ, मुझे नचा‌ओ निज इच्छानुसार॥
मैं करूँ, कहूँ, नाचूँ नित ही परतन्त्र, न को‌ई अहंकार।
मन मौन नहीं, मन ही न पृथक्‌, मैं अकल खिलौना, तुम खिलार॥
क्या करूँ, नहीं क्या करूँ-करूँ इसका मैं कैसे कुछ विचार ?
तुम करो सदा स्वच्छन्द, सुखी जो करे तुम्हें सो प्रिय विहार॥
अनबोल, नित्य निष्क्रिय, स्पन्दनसे रहित, सदा मैं निर्विकार।
तुम जब जो चाहो, करो सदा बेशर्त, न को‌ई भी करार॥
मरना-जीना मेरा कैसा, कैसा मेरा मानापमान।
हैं सभी तुम्हारे ही, प्रियतम! ये खेल नित्य सुखमय महान॥
कर दिया क्रीतडनक बना मुझे निज करका तुमने अति निहाल।
यह भी कैसे मानूँ-जानूँ, जानो तुम ही निज हाल-चाल॥
इतना मैं जो यह बोल गयी, तुम जान रहे-है कहाँ कौन ?
तुम ही बोले भर सुर मुझमें मुखरा-से मैं तो शून्य मौन॥