भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम हो ही नहीं / मनीष मूंदड़ा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बात उन लहरों की थी
जो मेरे अंदर उमड़ रहीं थी
पास आ के सुन पाते तो
तुम्हें अहसास हो जाता

बात उन लम्हों की थी जो
तुम्हारे साथ बिताए पलों का समावेश थे
मेरी आँखों में झाँकते तो
तुम्हें दिखाई दे जाते

पर तुम होते तो ना
तुम हो ही नहीं
फिर ये लहरें कैसी?
फिर ये लम्हें कैसे?