तुम / विनीत पाण्डेय
आज फ़िर से शब्द सुरभित हो रहे हैं
गीत का एक बार फ़िर आधार तुम हो
प्यास हो चिरकाल की या स्वाति वृष्टि
पास तुम तो तृप्ति फ़िर दोनों तरफ़ है
मन में जो है जग में भी माधुर्य वह ही
बिन तुम्हारे रिक्ति फ़िर दोनों तरफ़ है
सच ! ह्रदय की कल्पना साकार तुम हो
गीत का एक बार फ़िर आधार तुम हो
तुम में है रस रंग या रस रंग में तुम
भावनाएँ प्रश्न में खोयी हुई हैं
है महकती ये छुअन परिचय तुम्हारा
उलझने संगीत ज्यों कोई हुई हैं
मूल भी इस द्वन्द का उपचार तुम हो
गीत का एक बार फ़िर आधार तुम हो
आद्रता से जब रहित बंजर ह्रदय में
प्रेम का लघु बीज है स्थान पाता
भीग कर विश्वास के मेघों में निशदिन
एक दिन वह बीज बन वट वृक्ष जाता
बीज भी, विश्वास की बौछार तुम हो
गीत का एक बार फ़िर आधार तुम हो
हर्ष भी पाने का कुछ जब शीर्ष छू ले
फिर कहाँ संभव भी है अभिव्यक्ति तन से
पार कर ले शब्द सीमा भावनाएँ
यात्रा फ़िर बूँद की होती नयन से
बूँद की इस राह का विस्तार तुम हो
गीत का एक बार फ़िर आधार तुम हो