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तुम / श्यामनन्दन किशोर
Kavita Kosh से
तुम खुले नयन के सपने हो!
जब सो जातीं बरसात लिये ये आँखें,
जब शिथिल वेदना की हो जातीं पाँखें,
तब मेरी ही कल्पना मनोरम रूप तुम्हार धर कर
आती रँग जाता कनक-रंग में अम्बर!
सोते-जगते भूलती नहीं छवि जिसकी,
तुम वही प्राण के प्रिय मेरे अपने हो!
तुम आते, मेरे प्राण विकल हो जाते!
तुम जाते, मेरे गान सजल हो आते!
तुम आते-जाते, घर सूना का सूना!
तुम रहते, फिर भी दुख दूना का दूना!
है जिसका पता न कब गरजे, कब बरसे,
तुम वही मेघ सावन के सजल घने हो!
(1949)