तुलसीदास (1) / महेन्द्र भटनागर
ओ महाकवि !
गा गये तुम
गीत —
जीवन के मरण के,
भाव-पूरक, मुक्त-मन के !
सत्य, शिव, सौन्दर्य-वाहक !
गीत —
जो अभिनव अमर
धरती-गगन के !
हैं अपार्थिव और पार्थिव
लोक के परलोक के !
साहस, प्रगति, नव-चेतना,
नव-भावना, नव-कल्पना
आराधना के गीत !
जिनमें गूँजता है प्राणमय संगीतµ
मानव हो न किंचित देखकर तू
काल के निर्दय भयंकर रूप से भयभीत,
निश्चित मनुजता की लिखी है जीत !
ओ अमर साधक !
नयी अनुभूतियों के देव,
तुमने जीर्ण-संस्कृति का किया उद्धार ;
श्रद्धा से झुकाता शीश यह संसार !
छा रहा था भय
कि जब मानव भटकता था अँधेरे में,
विवशता के कठिन आतंक-घेरे में ;
धुआँ चहुँ और झूठे धर्म का
जब घिर रहा था व्योम में,
औ’ वास्तविकता जा छिपी थी
चक्र, कुण्डल, मंत्र, नाड़ी की
विविध निस्सार माया में,
भ्रमित था जग सकल
उलझी अनोखी रीतियों में,
तब उठे तुम
और तुमने थाह ले ली
पूर्ण ‘मानस’ भाव के बहते समुन्दर की !
किया विद्रोह अविचल,
बन गया जो त्रास्त, पीड़ित, नत
मनुजता का सबल संबल !:
1948