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तुलसीदास (2) / महेन्द्र भटनागर

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महाकवि तुम, तुम्हारा गीत
सच, हम गा नहीं सकते !

अँधेरा छा रहा था
जब कि तुम आये ;
किन्तु
वह सारा धुआँ छल का
बिखर कर उड़ गया
ज्योंही तुम्हारे स्वर
गगन में मुक्त मँडराए !
कि तुमको देखकर
लाखों दुखी जन के नयन
सुख-वारि से भर डबडबाए !
और उजड़े भग्न, हत, वीरान घर-घर में
नयी आशा, नये विश्वास के दीपक
विपद् कर भंग
फिर से टिमटिमाए !
तुम्हारी ज्योति के सम्मुख
तिमिर-पट छा नहीं सकते !
महाकवि तुम, तुम्हारा गीत
सच, हम गा नहीं सकते !

धरा पाकर तुम्हें जब मुसकरायी थी
बड़े उत्साह से प्रति प्राण में
नव चेतना आकर समायी थी !
तुम उसी जन-भावना के बन गये वाहक
अमर हे संत !

संस्कृति के विधायक,
हम तुम्हारी थाह जीवन में
कभी भी पा नहीं सकते !
महाकवि तुम, तुम्हारा गीत
सच, हम गा नहीं सकते !:
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