तुलसीदास / मुकुटधर पांडेय
कहाँ उद्दाम काम अविराम, वासनाविद्ध रूप का राग
कहाँ उपरति का उर में उदय, निमिष में ऐसा तीव्र विराग
राम को अर्पित तन-मन-प्राण, राम का नाम जीवनाधार
कहाँ प्रिय पुर-परिजन-परिवेश? बन गया अखिल लोक परिवार
किया तुमने विचरण स्वच्छन्द, वन्य निर्झर सा हो गतिमान
किया मुखरित वन-गिरि, पुरग्राम, राम का गा-गाकर गुन गान
तुम्हारा काव्यामृत कर पान, हृदय की बुझी चिरन्तन प्यास
जी उठी मानवता म्रियमाण, हुआ मानव का चरम विकास।
दिव्य, उद्गार, सुदिव्य विचार, दिव्यतर रचना छन्द प्रबन्ध
शब्द झरते हैं जैसे फूल, टपकता पद-पद पर मकरन्द
बहाकर भाषा में सुपवित्र, भक्ति गंगा की निर्मल धार
कर दिया तुमने यह उन्मुक्त, लोक के लिए मुक्ति का द्वार।
बिना तप के न सत्व की सिद्धि, बिना तप के न आत्म-संघर्ष
काव्य में तुमने किया सयत्न, प्रतिष्ठित एक उच्च आदर्श
त्याग जीवन का इष्ट न भोग, धर्म का वांछनीय विस्तार
विजय का लक्ष्य नहीं साम्राज्य, लक्ष्य दानवता का संहार।
तुम्हारे यशोगान में लग्न, सतत नत मस्तक देश-विदेश
गूँजता मानस महिमासागर, मौक्तिकों का अप्रतिम निधान
उन्हें जो चुगता है कर यत्न, कृती वह राजहंस मतिमान।
विश्व वाङ्मय का है शृंगार, हिन्द हिन्दी का है अभिमान
राष्ट्र को है अनुपम अवदान, तुम्हारा ‘मानस’ ग्रन्थ महान
कलित कविता सहज विलास, राम का चारु चरित्र प्रकाश
तुम्हारी वाणी में विश्वास, धन्य हो, तुम हे तुलसीदास!
-हम चाकर रघुवीर के