तुलसीदास / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / भाग ४
- [76]
- [76]
सुनते सुख की वंशी के सुर,
पहुँचे रत्नधर रमा के पुर;
लख सादर उठी समाज श्वशुर-परिजन की;
बैठाला देकर मान-पान;
कुछ जन बतलाये कान-कान;
सुन बोली भाभी, यह पहचान रतन की !
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- [77]
जल गये व्यंग्य से सकल अंग,
चमकी चल-दृग ज्वाला-तरंग,
पर रही मौन धर अप्रसंग वह बाला;
पति की इस मति-गति से मरकर,
उर की उर में ज्यों, ताप-क्षर,
रह गयी सुरभि की म्लान-अधर वर-माला।
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- [78]
बोली मन में होकर अक्षम,
रक्खो, मर्यादा पुरुषोत्तम !
लाज का आज भूषण, अक्लम, नारी का;
खींचता छोर, यह कौन ओर
पैठा उनमें जो अधम चौर ?
खुलता अब अंचल, नाथ, पौर साड़ी का !
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- [79]
कुछ काल रहा यों स्तब्ध भवन,
ज्यों आँधी के उठने का क्षण;
प्रिय श्रीवरजी को जिवाँ शयन करने को
ले चली साथ भावज हरती
निज प्रियालाप से वश करती,
वह मधु-शीकर निर्झर झरती झरने को।
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- [80]
जेंए फिर चल गृह के सब जन,
फिर लौटे निज-निज कक्ष शयन;
प्रिय-नयनों में बँध प्रिया-नयन चयनोत्कल
पलकों से स्फरित, स्फुरित-राग
सुनहला भरे पहला सुहाग,
रग-रग से रँग रे रहे जाग स्वप्नोत्पल।
- [81]
- [81]
कवि-रुचि में घिर छलकता रुचिर,
जो, न था भाव वह छवि का स्थिर-
बहती उलटी ही आज रुधिर-धारा वह,
लख-लख प्रियतम-मुख पूर्ण-इन्दु
लहराया जो उर मधुर सिन्धु,
विपरीत, ज्वार, जल-विन्दु-विन्दु द्वारा वह।
- [82]
- [82]
अस्तु रे, विवश, मारुत-प्रेरित,
पर्वत-समीप आकर ज्यों स्थित
घन-नीलालका दामिनी जित ललना वह;
उन्मुक्त-गुच्छ चक्रांक-पुच्छ,
लख नर्तित कवि-शिखि-मन समुच्च
वह जीवन की समझा न तुच्छ छलना वह।
- [83]
- [83]
बिखरी छूटी शफरी-अलकें,
निष्पात नयन-नीरज पलकें,
भावातुर पृथु उर की छलकें उपशमिता,
निःसम्बल केवल ध्यान-मग्न,
जागी योगिनी अरूप-लग्न,
वह खड़ी शीर्ण प्रिय-भाव-मग्न निरुपमिता।
- [84]
- [84]
कुछ समय अनन्तर, स्थित रहकर
,
स्वर्गीयाभा वह स्वरित प्रखर
स्वर में झर-झर जीवन भरकर ज्यों बोली;
अचपल ध्वनि की चमकी चपला,
बल की महिमा बोली अबला,
जागी जल पर कमला, अमला मति डोली-
- [85]
- [85]
"धिक धाये तुम यों अनाहूत,
धो दिया श्रेष्ठ कुल-धर्म धूत,
राम के नहीं, काम के सूत कहलाये !
हो बिके जहाँ तुम बिना दाम,
वह नहीं और कुछ-हाड़, चाम !
कैसी शिक्षा, कैसे विराम पर आये !"
- [86]
- [86]
जागा, जागा संस्कार प्रबल,
रे गया काम तत्क्षण वह जल,
देखा, वामा वह न थी, अनल-प्रतिमा वह;
इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान,
हो गया भस्म वह प्रथम भान,
छूटा जग का जो रहा ध्यान, जड़िमा वह।
- [87]
- [87]
देखा, शारदा नील-वसना
हैं सम्मुख स्वयं सृष्टि-रशना,
जीवन-समीर-शुचि-निःश्वसना, वरदात्री,
वाणी वह स्वयं सुवदित स्वर
फूटी तर अमृताक्षर-निर्झर,
यह विश्व हंस, हैं चरण सुघर जिस पर श्री।
- [88]
- [88]
दृष्टि से भारती से बँधकर
कवि उठता हुआ चला ऊपर;
केवल अम्बर-केवल अम्बर फिर देखा;
धूमायमान वह घूर्ण्य प्रसर
धूसर समुद्र शशि-ताराहर,
सूझता नहीं क्या ऊर्ध्व, अधर, क्षर रेखा।
- [89]
- [89]
चमकी तब तक तारा नवीन,
द्युति-नील-नील, जिसमें विलीन
हो गयीं भारती, रूप-क्षीण महिमा अब;
आभा भी क्रमशः हुई मन्द,
निस्तब्ध व्योम-गति-रहित छन्द;
आनन्द रहा, मिट गये द्वन्द्व, बन्धन सब।
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- [90]
थे मुँदे नयन, ज्ञानोन्मीलित,
कलि में सौरभ ज्यों, चित में स्थित;
अपनी असीमता में अवसित प्राणाशय;
जिस कलिका में कवि रहा बन्द,
वह आज उसी में खुली मन्द,
भारती-रूप में सुरभि-छन्द निष्प्रश्रय।
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- [91]
जब आया फिर देहात्मबोध,
बाहर चलने का हुआ शोध,
रह निर्विरोध, गति हुई रोध-प्रतिकूला,
खोलती मृदुल दल बन्द सकल
गुदगुदा विपुल धारा अविचल
बह चली सुरभि की ज्यों उत्कल, निःशूला-
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- [92]
बाजीं बहती लहरें कलकल,
जागे भावाकुल शब्दोच्छल,
गूँजा जग का कानन-मण्डल, पर्वत-तल
सूना उर ऋषियों का ऊना
सुनता स्वर, हो हर्षित, दूना,
आसुर भावों से जो भूना, था निश्चल।
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- [93]
जागो, जागो आया प्रभात,
बीती वह, बीती अन्ध रात,
झरता भर ज्योतिर्मय प्रपात पूर्वाचल
बाँधो, बाँधो किरणें चेतन,
तेजस्वी, है तमजिज्जीवन,
आती भारत की ज्योर्धन महिमाबल।
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- [94]
होगा फिर से दुर्धर्ष समर
जड़ से चेतन का निशिवासर,
कवि का प्रति छवि से जीवनहर, जीवन भर
भारती इधर, हैं उधर सकल
जड़ जीवन के संचित कौशल
जय इधर, ईश, हैं उधर सबल माया-कर।
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- [95]
हो रहे आज जो खिन्न-खिन्न
छुट-छुटकर दल से भिन्न-भिन्न
वह अकल-कला, गह सकल छिन्न, जोड़ेगी,
रवि-कर ज्यों विन्दु-विन्दु जीवन
संचित कर करता है वर्षण,
लहरा भव-पादप, मर्षण-मन मोड़ेगी।
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- [96]
देश-काल के शर से बिंधकर
यह जागा कवि अशेष-छविधर
इनका स्वर भर भारती मुखर होयेंगी
निश्चेतन, निज तन मिला विकल,
छलका शत-शत कल्मष के छल
बहतीं जो, वे रागिनी सकल सोयेंगी।
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- [97]
तम के अमार्ज्य रे तार-तार
जो, उन पर पड़ी प्रकाश-धार
जग-वीणा के स्वर के बहार रे, जागो
इस कर अपने कारुणिक प्राण
कर लो समक्ष देदिप्यमान-
दे गीत विश्व को रुको, दान फिर माँगो।
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- [98]
क्या हुआ कहाँ, कुछ नहीं सुना,
कवि ने निज मन भाव में गुना,
साधना जगी केवल अधुना प्राणों की,
देखा सामने, मूर्ति छल-छल
नयनों में छलक रही, अचपल,
उपमिता न हुई समुच्च सकल तानों की।
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- [99]
जगमग जीवन का अन्त्य भाष-
जो दिया मुझे तुमने प्रकाश,
अब रहा नहीं लेशावकाश रहने का
मेरा उससे गृह के भीतर,
देखूँगा नहीं कभी फिरकर,
लेता मैं, जो वर जीवन-भर बहने का।
- [100]
- [100]
चल मन्द चरण आये बाहर,
उर में परिचित वह मूर्ति सुघर
जागी विश्वाश्रय महिमाधर, फिर देखा-
संकुचित, खोलती श्वेत पटल
बदली, कमला तिरती सुख-जलष
प्राची-दिगन्त-उर में पुष्कल रवि-रेखा।
--समाप्त--