Last modified on 2 अक्टूबर 2007, at 00:11

तुव मुख देखि डरत ससि भारी / सूरदास

राग बिहागरौ

तुव मुख देखि डरत ससि भारी ।
कर करि कै हरि हेर्‌यौ चाहत, भाजि पताल गयौ अपहारी ॥
वह ससि तौ कैसेहुँ नहिं आवत, यह ऐसी कछु बुद्धि बिचारी ।
बदन देखि बिधु-बुधि सकात मन, नैन कंज कुंडल इजियारी ॥
सुनौ स्याम, तुम कौं ससि डरपत, यहै कहत मैं सरन तुम्हारी ।
सूर स्याम बिरुझाने सोए, लिए लगाइ छतिया महतारी ॥

भावार्थ :-- लाल! तुम्हारा मुख देखकर चन्द्रमा अत्यन्त डर रहा है । श्याम ! तुम(पानी में) हाथ डालकर उसे ढुँढ़ना चाहते हो, इससे वह चोर की भाँति भागकर पाताल चला गया । वह (आकाश का) चन्द्रमा तो किसी भी प्रकार आता नहीं और यह जो जल में था, उसने बुद्धि से कुछ ऐसी बात सोच ली कि तुम्हारे मुख को देखकर इस चन्द्रमा की बुद्धि शंकित हो गयी । उसने अपने मन में तुम्हारे नेत्रों को कमल तथा कुण्डलों को (सूर्य का)प्रकाश समझा; इसलिये श्यामसुन्दर, सुनो ! चन्द्रमा तुमसे डर रहा है और यही कहता है कि मैं तुम्हारी शरण में हूँ । (मुझे छोड़ दो) सूरदास जी कहते हैं कि (इतना समझाने से भी प्रभु माने नहीं) श्यामसुन्दर मचलते हुए ही सो गये । माता ने उन्हें हृदय से लगा लिया ।