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तु जा रही है छुट्टियों में नानी के गांव / हेमन्त देवलेकर
Kavita Kosh से
धुआँ दौड़ा जा रहा है
खेत दौड़े जा रहे हैं
पेड़, कुएँ, डबके
नदी, तालाब, पुल और बोगदे
सभी दौडे़ जा रहे हैं
स्टेशन और गाँव
दौड़े जा रहे हैं
बिजली के मोटे-मोटे तारों को
कंधों पर लादे
दौड़ रहे हैं, ऊँचे-ऊँचे खंभे भी
वो दूर.....अकेली
फसलों में दुबकी झोपड़ी
और सबसे आखिर में खड़ा
पहाड़ भी
धीमे धीमे सही
दौड़ा जा रहा है।
यूँ सारी धरती दौड़ी जा रही है
उतनी ही तेज़ी से पीछे
जितनी तेज़ी से बढ़ी जा रही है
यह रेलगाड़ी आगे
वे सब पीछे की ओर
लौटकर
भर देना चाहते हैं
वह ख़ालीपन
जो तू बनाकर आई है
ताकि वहाँ भूतहा वीराना न लगे
कोई चिड़िया घबराकर
अपने बसेरे से उड़ न जाए।