भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तूँ हमरा से गीत गवावेलऽ / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
Kavita Kosh से
कबो सुख के खेल खेला के
कबो नैनन से लोर बहाके
ना जानीं जे कतना छल क के
तूं हमरा से गीत गवां वेलऽ
पकड़े गइला पर तूं पकड़ा लऽ कहाँ?
नजदीक आ-आ के तूभें दूर भग जलऽ
पले-पले प्रन मेभें पीर भर देबेलऽ
एहीं गईं छल से गीत तूं गवावेलऽ
कतना तीव्र तार से आपन बीन तूं सजावेलऽ
छेद क के सएकड़न, जीवन-बभेंशी बजबेलऽ
तहरा स्वर का लीला से हमार जीवन विभोर बा
ओके चुपचाप अपना चरनन में पड़ल रहे द।
जिनगी भर, ना जानीं जे कतना छल से
हमरा से गीत तूं गववलऽ