तूने मुझे शर्मसार किया / सरस दरबारी
'पुत्रवती भव'
रोम रोम हर्षित हुआ था-
जब घर के बड़ों ने-
मुझ नव-वधु को यह आशीष दिया था-
कोख में आते ही-
तेरी ही कल्पनाओं में सराबोर!
बड़ी बेसब्री से काटे थे वह नौ महीने
तू कैसा होगा रे-
तुझे सोच सोच भरमाती सुबह शाम!
बस आजा तू यही मनाती दिन रात
गोद में लेते ही तुझे-
रोम रोम पुलक उठा था-
लगा ईश्वर ने मेरी झोली आकंठ भर दी!
आज
तूने मेरी झोली आकंठ भर दी!
शर्म से
उन गालियों से-
जो हर गली हर मोड़ पर बिछ रही हैं
उस धिक्कार से-
जो हर आत्मा से निकल रही है
उस व्यथा से-
जो हर पीडिता के दिल से टपक रही है
उन बददुआओंसे-
जो मेरी कोख पर बरस रही हैं!
मैंने तो इक इंसान जना था-
फिर- यह वहशी!
कब, क्यूँ, कैसे हो गया तू
आज मेरी झोली में
नफरत है-
घृणा है-
गालियाँ हैं-
तिरस्कार है- जो लोगों से मिला-
ग्लानि है-
रोष है-
तड़प है-
पछतावा है-
जो तूने दिया!!!
जिसे माँगा था इतनी दुआओंसे-
वही बददुआ बन गया!
तूने सिर्फ मुझे नहीं-
'माँ'-
शब्द को शर्मसार किया