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तू अगर हमसफ़र नहीं होता / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
तू अगर हमसफ़र नहीं होता
जिंदगी में सबर नहीं होता
रूबरू ग़र न खुदाई होती
तो परस्तिश का डर नहीं होता
धूप सूरज की जला ही देती
ग़र जहां में शज़र नहीं होता
अश्क़ आँखों मे जो नहीं होते
तो किसी का गुज़र नहीं होता
जब तशद्दुद की आँधियाँ उठतीं
कोई भी बाख़बर नहीं होता
आशियाने की है ख्वाहिश सबको
पर सभी का तो घर नहीं होता
वक़्त की आहटें जो सुन पाते
आज टूटा क़हर नहीं होता
गैर ग़र करता बेवफ़ाई तो
दिल पे इतना असर नहीं होता
जो न इस कदर टूट जाता दिल
यों कलम बाअसर नहीं होता