भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तू एक आईनागर है संभल के चल बाबा / कांतिमोहन 'सोज़'
Kavita Kosh से
तू एक आईनागर है संभल के चल बाबा I
ये पत्थरों का नगर है संभल के चल बाबा II
क़दम क़दम पे यहां वारदात होती है
ये रौशनी का सफ़र है संभल के चल बाबा I
अंधेरी रात के तालिब को कोई ख़ौफ़ नहीं
तुझे तलाशे-सहर है संभल के चल बाबा I
नहीं है कुछ भी तेरे पास तू समझता है
तू खुद भी माल है ज़र है संभल के चल बाबा I
ये दौरे-नौ है यहां कोई बच नहीं सकता
किसी की तुझपे नज़र है संभल के चल बाबा I
यहां डकैत सियासत में दख्ल रखते हैं
बड़े-बड़ों पे असर है संभल के चल बाबा I
धुआं धुआं सी ये बस्ती हुआं हुआं बाज़ार
इसी में सोज़ का घर है संभल के चल बाबा II